ईश्वर ने इंसान बनाया और उसे ज़ुबान दी, ज़ुबान के साथ ऐसा नायाब स्वरयंत्र दिया दिया जिसका इस्तेमाल वह बोलने के लिए करता है। बोलने के लिए शब्द चाहिए। अपने ख़्यालों के इज़हार के लिए भी शब्द चाहिए। अगर शब्द न होते तो हम अपने ख्यालों को कैसे व्यक्त करते, कैसे कह पाते, कैसे लिख पाते। शब्द न होते तो किताबें न होती और न ही कुछ पढ़ने पढ़ाने को होता। हम आज की तरह एस.एम.एस न कर पाते, न फ़ैसबुक पर कोई अपनी बात लिख कर स्टेटस डाल पाते। न ही कोई वट्सऐप पर चैट कर पाता, न कोई ट्वीट कर कुछ कह पाता। कुछ आड़ी तिरछी लकीरें होतीं और तस्वीरें होतीं। हम केवल फ़ोटो अपलोड कर पाते। हम इतनी सुगमता से पुराने यार दोस्तों को न खोज पाते। तब कुछ याद रह जाता और बहुत कुछ भूल जाता। कुछ भूली-बिसरी बातें शेष रह जाती। ये यादों के अफ़साने कुछ ही समय बाद दफ़्न हो जाते। कुछ अफ़सानों की कबरें होतीं तो कुछ कबरों के अफ़साने होते। ज़रा कल्पना कीजिए! अगर शब्द न होते तो इंसानों की दुनिया कैसी होती।
शब्द न होते, तो हम अपनी बात कैसे कह पाते? हमारी भाषा कैसी होती? हम अपने सुख, दुख, खुशी, उत्साह, न्राराज़गी व गुस्से को कैसे व्यक्त करते? हमारी भाषा भी शायद वनों में विचरण करने वाले खग-मृगों की तरह होती। हमारी भाषा पालतु जन्तुओं की तरह होती और आकाश में विचरण करते पंछियों की तरह होती। हम अगर गुस्सा करते, तो कुत्ते की तरह गुर्राते और चिल्लाना चाहते तो शायद उसी की तरह भौंकते। खुश होते तो इसका इज़हार शायद घोड़े की तरह हिनहिना कर करते या फ़िर गधे की तरह ढेंचु ढेंचु करते। ऐसे में इज़हारे मोहब्ब्त कैसे करते? शायद आंखों के ईशारे से ही सब कुछ समझना पड़ता और दिल जीतने का ये हुनर भी सीखना पड़ता क्योंकि न खत लिख पाते न वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग कार्ड दे पाते। तब प्रेम कहानी तोता-मैना जैसी ही होती। अगर कोई कोयल की तरह कूक पाता तो उसे लता और रफ़ी की तरह अच्छा गायक समझा जाता। तब गीत न होते और अगर संगीत होता तो केवल प्रकृति का संगीत होता। मंद मंद बहती हवा का होता, कल कल करते नालों का होता और झर झर करते झरनों का होता।
बिना शब्दों की दुनिया में हम या तो मिस्टर बीन की तरह होते या चार्ली चैपलिन की तरह होते या फ़िर माइम के किसी एक्टर की तरह। हम किसी गूंगे की कल्पना भी कर सकते हैं। टीवी पर केवल ईशारों से ही समाचार दिखाये जाते और सिनेमा के रुपहले पर्दे की कहानी ‘राजा ‘हरीशचंद्र‘ से ‘आलामारा: तक न पहुंचती। तब केवल चार्ली चैपलिन या मिस्टर बीन जैसे ही अदाकार दिखते। शब्दहीन लोकतंत्र में विरोध के नारे न लगते, न कोई लिखित बैनर होते, न तख्तियों के सहारे कोई अपनी भड़ास निकाल पाता। तब शायद आदमी बंदरों के किसी दल की तरह शोर मचाते। ऐसे में कोई ब्यान न दे पाता और न ब्यान पर बवाल होता न सियासत। ऐसे में अभिव्यक्ति की आज़ादी कौन बात करता और क्या बात करता? तब न कोई अखबार होता, न कोई साहित्य होता।
शब्दों के बगैर दुनिया वास्तव में हमारी दुनिया अधूरी और निरस होती। सचमुच शब्द हमारी दुनिया को कई तरह के रंगों से भरते हैं। ये हमारी ज़िंदगी को नया आयाम देते हैं। शब्दों से हम समझते भी है और समझाते भी हैं। शब्द अपने आप में शक्ति हैं और किसी को भी शक्ति प्रदान करते हैं। ये शब्द आपकी भी शक्ति बन सकते हैं। कोई समझ ले तो एक शब्द भी जीवन बदल देता है, न समझो तो लाखों शब्द भी निरर्थक हैं। शब्द घाव भी देते हैं और घावों पर मरहम भी लगाते हैं।
शब्द आज़ाद है, पर उनका चुनाव करने के लिए आपको विवेकपूर्ण होना पड़ेगा। शब्द आप सुनते या पढ़ते ही नहीं, बल्कि वे एहसास दिलाते हैं। शब्दों की शक्ति असीम होती है। शब्द युद्ध और शान्ति दोनों करवाते हैं। कागज़ पर उतारे गए और मुंह बोले गये शब्द दुनिया में उथल पुथल मचा सकते हैं। शब्द धरा पर नहीं, दिलों पर पड़ते हैं और फ़िर बीज बन जाते हैं जिससे महाभारत जैसे युद्ध के भयानक वृक्ष भी अंकुरित हो सकते हैं या फ़िर विश्वशांति के पौधे। शब्द विध्वंसक परमाणु बम भी बन सकते हैं या पीड़ा से मुक्ति और मन को शीतलता देने वाली औषधि भी ।
बहुत नासमझ होते हैं वो जो कहते हैं - शब्दों में क्या रखा है? इतिहास गवाह है कि दुनिया को दिशा देने वाले वही लोग थे जो शब्दों की अहमियत को समझते थे। अच्छे शब्द बहुमूल्य होते हैं और उनके इस्तेमाल में कोई खर्च नहीं आता। शब्दों के चयन में की गयी चंद लम्हों की गलतियों के कारण सदियों पछताना पड़ता है। ज़ुबान में हड्डी नहीं, परन्तु इससे उगले हुए शब्दों के तीर दिल को भेद कर रख देते हैं। इसलिए शब्दों का सोच समझ कर इस्तेमाल कीजिए। कहा भी है - ख़ुदा को पसंद नहीं सख्तियां ज़ुबान की, इसलिए हड्डी नहीं ज़ुबान की।
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